मुंबई, और ख़ास कर भारतवर्ष में अनेक वर्ष रहने के बाद शायद ही किसी को किसी चीज़ का आश्चर्य होता है. पर हाँ, कभी-कभी ऐसा कुछ हो जाता है, कोई ऐसा मिल जाता है, जिससे मन में एक मीठा अचरज हो उठता है, दिन में एक रौशनी सी भर जाती और चहरे पर एक मुस्कान छा जाती है :)
ऐसा ही कुछ आज सुबह मेरे साथ हुआ. लोकल में सर की क्लिप से लेकर पैर के जूतों तक सब कुछ बेचनेवाले सुबह से शाम तक दिखाई पड़ते हैं. आज सुबह लडिज़ स्पेशल में एक औरत साबूदाना वडा, खिचड़ी, पोहा इत्यादि बेचने आई. नीली सलवार और फूलों वाली सफ़ेद कमीज़. छोटा कद मगर कद से कई ज्यादा ऊँची आवाज़. चहरे पर गज़ब का तेज़. "जल्दी बोलो, मैडम" की धुन से उसने पूरा डब्बा बाकायदा हिला रखा था. मैं एक कोने में खड़ी अख़बार पढ़ रही थी, वो छोड़ कर मैं तो बस उसकी फुर्ती देखती ही रह गयी. एक पल यहाँ तो एक पल वहाँ. बगल में दो चेन वाला पर्स टांग रखा था. उसका झोला मानो कोई अक्षय पात्र हो उस तरह चीज़ें उस में से निकलती ही जा रही थी. उसने सब कुछ इस सहुलियत से सजा रखा था की कोई भी चीज़ लेने-देने में उसे दस सेकंड से ज्यादा न लगे. अँधेरी और सान्ताक्रुज़ के बीच उसने हमारे डिब्बे की कितनी ही औरतों का पेट भर उन्हें लंच टाइम तक के लिए निश्चिंत किया और स्टेशन आते ही मानो नदारद हो गयी.
इतनी भाग-दौड़ के बीच भी उसके माथे पर कोई शिकन न पद रही थी. उसको रोज़ देखने वाली कई औरतों में से एक ने मज़ाक करते हुए कहा, "तेरी आवाज़ तो सुने दे जाती है पर कुछ खरीदना हो तो तू दिखाई नहीं देती! कल से ऊँची एडी की चप्पल पहन कर आना." उस पर वो ठहाका मर कर बोली, "ऊँची एडी की चप्पल तो मैं पहन लू, पर ट्रेन में चढ़ते हुए कहीं गिर गयी तो?"
उसका नाम तो पूछने का मुझे कुतूहल ज़रूर हुआ लेकिन उसके पास शायद ऐसी बेकार बातों के लिए फुर्सत न होगी यह सोच कर मैंने अपना इरादा बदल दिया. और उसका नाम जानना वैसे ज़रूरी भी न था. हम चाहें तो उसे "प्रेरणा" बुला सकते हैं. :)
ऐसा ही कुछ आज सुबह मेरे साथ हुआ. लोकल में सर की क्लिप से लेकर पैर के जूतों तक सब कुछ बेचनेवाले सुबह से शाम तक दिखाई पड़ते हैं. आज सुबह लडिज़ स्पेशल में एक औरत साबूदाना वडा, खिचड़ी, पोहा इत्यादि बेचने आई. नीली सलवार और फूलों वाली सफ़ेद कमीज़. छोटा कद मगर कद से कई ज्यादा ऊँची आवाज़. चहरे पर गज़ब का तेज़. "जल्दी बोलो, मैडम" की धुन से उसने पूरा डब्बा बाकायदा हिला रखा था. मैं एक कोने में खड़ी अख़बार पढ़ रही थी, वो छोड़ कर मैं तो बस उसकी फुर्ती देखती ही रह गयी. एक पल यहाँ तो एक पल वहाँ. बगल में दो चेन वाला पर्स टांग रखा था. उसका झोला मानो कोई अक्षय पात्र हो उस तरह चीज़ें उस में से निकलती ही जा रही थी. उसने सब कुछ इस सहुलियत से सजा रखा था की कोई भी चीज़ लेने-देने में उसे दस सेकंड से ज्यादा न लगे. अँधेरी और सान्ताक्रुज़ के बीच उसने हमारे डिब्बे की कितनी ही औरतों का पेट भर उन्हें लंच टाइम तक के लिए निश्चिंत किया और स्टेशन आते ही मानो नदारद हो गयी.
इतनी भाग-दौड़ के बीच भी उसके माथे पर कोई शिकन न पद रही थी. उसको रोज़ देखने वाली कई औरतों में से एक ने मज़ाक करते हुए कहा, "तेरी आवाज़ तो सुने दे जाती है पर कुछ खरीदना हो तो तू दिखाई नहीं देती! कल से ऊँची एडी की चप्पल पहन कर आना." उस पर वो ठहाका मर कर बोली, "ऊँची एडी की चप्पल तो मैं पहन लू, पर ट्रेन में चढ़ते हुए कहीं गिर गयी तो?"
उसका नाम तो पूछने का मुझे कुतूहल ज़रूर हुआ लेकिन उसके पास शायद ऐसी बेकार बातों के लिए फुर्सत न होगी यह सोच कर मैंने अपना इरादा बदल दिया. और उसका नाम जानना वैसे ज़रूरी भी न था. हम चाहें तो उसे "प्रेरणा" बुला सकते हैं. :)
yeh jankar acha laga ki humari sabhyata ab tak barkaraar hai :)
ReplyDeletekaafi pyaara vivran [aur abubhav bhi] hai..:)!
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