कविता लिखना किसी इंसान के बस की बात नहीं है कविता ख़ुद ही अपने आप को लिखती है इक ज़रिया है बस हम तो कविता ख़ुद ही ख़ुद को आईना में दिखती है यह ख़ुद अपनी ज़ुबां चुनती है लफ्ज़ अपने ख़ुद ही ढूँढ़ती है कोशिश कर लेना तुम कभी झूठ लिखते ही ये टूटती है देर रात यह सपने में आती मन के दरवाज़े पर दस्तक देती लिफ़ाफ़े में बंद चिट्ठी में अपने आप को तुम्हें दे जाती लिखावट काग़ज़ पर तुम्हारी है बेशक़ पर कलम में सियाही तो वो ही भर जाती कभी यूँ ही शाम को मिलने आती खिड़की के पास बैठ चाय की चुस्कियाँ लगाती रोम रोम में इक महक सी भर जाती है दिल की धड़कनें कानों तक गूँज जाती है बाहर की खिड़की खोलते खोलते यह रूह के दरवाज़े खोल जाती है एक बार कविता हर किसी को छूने आती है जब टुटा हो दिल प्यार में, तो यह कुछ ज़्यादा जी लुभाती है जब हाथ बढ़ाए तुम्हारी ओर, झट से थाम लेना, साहीर यह बार बार गले नहीं लगती है।